चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब,
सोचते रहते हैं किस राह गुज़र के हम हैं.
लिखना मेरे पुरानी बीमारी थी, जो परिस्तिथियों की बलि चढ़ धीरे-धीरे कम होती गई. जिसपर पिताश्री के स्वर्गवासी होने के बाद पूर्णविराम लग गया. मैंने 2008 के बाद शायद ही कुछ ढंग का लिखा हो. दुसरी असाध्य रोग जो मुझे है वो है – घुमक्कड़ी का, यात्रा पर जाने का. पहाड़ को बचपन से देखा, भले ही छोटा ही सही, प्रकृति और पेड़-पौधे की तरफ आकर्षण पिताश्री की प्रकृति प्रेम की वजह से हुआ. बचपन में पिताश्री से उनकी घुमक्कड़ी की कहानी, उनसे सुनकर और कश्मीर की वादियों की अनेकों फोटो को उनके ब्लैक एंड वाइट अल्बम में देखकर ही शायद पहाड़ों की वादियों ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया. जिसका परिणाम ये है की मुझे हिल स्टेशन, पहाड़ों की वादियाँ, जंगल, समुन्दर ये सब अपनी ओर खींचते रहते हैं. अब ये अलग बात है कि ये ख्वाब हक्कीकत कितनी बन पाती है. किसी भी नगर या महानगरों को देखने या घूमने की अभिलाषा उतनी नहीं रही कभी भी. हिन्दुस्तान के किसी भी नगर या महानगर ने आज तक मुझे आकर्षित नहीं किया, क्योंकि ये खुद मुझे मुर्दों की मजार और कांक्रीट के जंगल लगते हैं.
इस भटकन और घुमक्कड़ी ने मुझे यायावर बना दिया. एक यात्रा खत्म नहीं होती उसकी पहले ही, अगले यात्रा की योजना शुरू हो जाती हैं. कुछ दिन अगर यूं ही बीत जाये तो मन विचिलित-सा हो जाता है, दिमागी कीड़ा कुलबुलाने लगता. ये बात अलग है कि कई प्लान छुट्टी नहीं मिल पाने के कारण फलीभूत नहीं हो पाते. लोग मुझे पागल, तो कुछ इसे पैसे उड़ाना कहते हैं (जबकि मेरी तनख्वा भी मेरे ख्वाहिशों और यायावरी की बीमारी के लिये ऊंट के मुहँ में जीरे जैसी है). पर जूनून तो अपना रास्ता कैसे भी बना ही लेता है.
अपनी यायावरी को कलमबंद करने और संस्मरणों को संजोने के लिये ये मेरा छोटा सा प्रयास है. इसमें कितना सफल होऊंगा ये तो समय ही बताएगा या आप.
फोटो विवरण:
ये फोटो ३१ मई, २०१८ को सिक्किम यात्रा के दौरान त्सोंगमो झील या चंगू झील के पास, जो सिक्किम कि राजधानी गंगटोक से लगभग ४० किलोमीटर दुर और समुन्द्रतल से १२,३१३ फीट की ऊचाई पर है. दिन के ३:१५ बजे थे और अचानक मौसौम ने करवट बदली और ना जाने कहाँ से इतने सारे बादल आ गये कि हम सबको डर सा लगने लगा. हमारे साथ तीन परिवारों से कुल ४ बच्चे भी थे, जो ६ साल और ३ साल की उम्र के थे. हमें अभी काफी निचे जाना था. पर बच्चों को तो मस्ती सूझ रही थी, वो मजे ले रहे थे. बादलों को देख जोर – जोर से शोर मचा रहे थे. हमलोग अगले दो घंटे से ज्यादा समय तक इन घने बादलों और तेज हवाओं के बीच ही घिरे रहे, ऊपर से इतनी ऊंचाई पर टेढ़े – मेढे रास्ते. हमारे ड्राईवर महोदय हमें दिलासा देते रहे की ये तो यहाँ का रोज का नजारा है बारिशों के दिनों में. ये बात अलग थी कि अभी बारिश का मौसम बस दस्तक ही दे रही थी. आपलोगों को शायद इस फोटो से हमारे डर और रोमांच के अनुभव का आभास हो.
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आपकी बीमारी बहुत अच्छी है, इसी बीमारी का इलाज कभी मत करवाइएगा, बस ऐसे ही इसे लाइलाज होने देना, चाहे कोई पढ़े या न पढ़े, टिप्पणी आए या न आए बस लिखते जाइएगा, किसी न किसी का तो भला होगा ही आपके लिखने से।
बहुत ही अच्छी जोरदार परिचय प्रस्तुति। हमारी तरफ से बहुत सारी शुभकामनाएं।
शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद भाईजी
आपकी बात गांठ बांध ली, लगभग १५ वर्षों बाद ये लिखने की बीमारी सिक्किम की बर्फीली हवा की वजह से फिर से टीस दे रही है | देखिये कितना गहराता है |
काफी कुछ लिख चुके हैं आप, रोचक लेखन है, लिखते रहिए