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एक तूफानी मिलन

यायावर एक ट्रेवलर पर गेस्ट पोस्ट में पहला पोस्ट पटना के श्री बिरेन्द्र कुमार जी की कलम से भागलपुर यात्रा और भागलपुर के पास बांका स्थित मंदार पर्वत मिलन पर आप लोगों के सामने है.

घुमक्कड़ मित्र, जो बिहार राज्य से हैं, उनसे मिलने का विचार मन में आया. इसी क्रम में, भागलपुर निवासी अंशुमान चक्रपाणि जी, जो अभी हाल ही में अपनी मेघालय की यात्राओं को पूर्ण कर वापस आए हैं, उनसे, उनकी नार्थ ईस्ट यात्राओं के बारे में उनके अनुभव सुनने का भी मन हुआ.

दिनांक 12 दिसंबर 2019 को मैं कार्यालय में था और अपने कार्य में व्यस्त था, तभी फ़ोन की घंटी बजी और एक अनजान नंबर को देख थोड़ी देर के लिए मैं अनदेखा करता हूं. पर फोन बजता ही रहा.

मैंने फोन उठाया- हेलो!

उधर से आवाज आई – वीरेंद्र भाई, आप कैसे हो ?

मैंने पूछा- कौन ?

उधर से जवाब आई- मैं अंशुमान चक्रपाणि भागलपुर से.

मेरे मन में खुशी का ठिकाना ना रहा कि जिनके बारे में मै सोच रहा था, वही फोन पर हैं और मैंने बहुत ही उत्साहित स्वर में कहा- अंशुमान भाई, अब आपको हमारी याद आई!

इस पर हंसते हुए उन्होंने कहा है- भाई, मेरी याददाश्त थोड़ी कमजोर है. मैं भूलता बहुत हूँ. पिछली दफा अगस्त में आपसे बात की थी और आपने उस समय मेरा फोन नंबर मांगा था तो मैंने कहा था कि अच्छा मैं आपको फोन करता हूं, और मैं भूल गया. फिर मैसेंजर पर एक दिन आप से बात हुई, आपने अपना नंबर छोड़ा और मैंने कहा था कि मैं आपसे बात करता हूं, क्योंकि उस समय मेरी तबीयत खराब थी और संयोग देखिए मैं फिर भूल गया.

इस पर मैंने हंसते हुए कहा- कि आप तो योग गुरु हैं आप कैसे भूल जाते हैं ?

तो उन्होंने कहा- योग करते ही हैं बातों को भुलाने के लिए. यह एक मजाक था पर बड़ा मजा आया उनसे बात करके. फिर बातों ही बातों में मैंने उनसे कहा अभी आप की तबीयत कैसी है ? और फिर हम लोग बात करने लगे. उन्होंने पूछा कि आप भागलपुर कब आ रहे हो ? मैंने कहा- कि अभी तो मैं बहुत व्यस्त हूं. आप अपना कार्यक्रम बताएं.

उन्होंने बताया कि 16 दिसंबर को उनको दिल्ली जाना है. मैंने कहा इस रविवार को मिलने का कार्यक्रम करते हैं, 75% चांस, मैं आ रहा हूं सिर्फ 25% की आने की संभावना ना होगी. तो मैं आपको शुक्रवार को पूर्णतया अपना प्रोग्राम बताता हूं.

13.12.2019 दिन शुक्रवार, पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार अंशुमान भाई का फोन आया और मैने मिलन कार्यक्रम पर मुहर लगा दी. तभी मुझे पाण्डेजी का ध्यान आया जो सोनपुर मे रहते हैं और सोनपुर मेला के समय से ही मिलन का कार्यक्रम करना चाह रहे थे. पर समयाभाव के कारण नहीं हो सका था. अंशुमान भाई फोन पर ही  थे और मैंने मैसेंजर पर पाण्डेजी से इस मिलन कार्यक्रम पर चैटिंग शुरू कर दी. ऐसा लगा कि वे तो कब से तैयार बैठे थे, इस मौके के लिए. जल्द ही उन्होने भी अपनी सहमति दे दी. अब हम एक से भले दो हो चुके थे. पर कहते हैं ना कि ये दिल माँगे मोर. इधर अंशुमान भाई फोन पर, पाण्डेजी मैसेंजर पर और उसी वक्त अभिषेक पाण्डेजी को मैने व्हाटसप पर मिलन का मैसेज भेज दिया. जहाँ चाह वहाँ राह. अभिषेक पाण्डेजी ने भी इस मिलन के मौके को सहर्ष स्वीकार कर लिया. कुछ देर पहले, जहाँ मै अकेला मिलने जा रहा था और दस मिनट मे ही एक से दो और दो से तीन हो गये. उधर अंशुमान भाई ये समझ नहीं पा रहे थे कि ये सब कैसे संभव होता जा रहा है ? कहीं मिलन के कार्यक्रम इस तरह तूफानी बनते हैं ? उनकी खुशी का भी ठिकाना नहीं रहा कि हम सब पहली बार बिहार में घुमक्कड़ मिलन करने जा रहे हैं, वो भी इस तरह तूफानी प्लान के जरिए.

तो मित्रों, कार्यक्रम इस प्रकार तय हुआ कि शनिवार को दोनों पाण्डेजी बाइक से सोनपुर से पटना मेरे आवास पर आयेंगे, बाइक यही पार्क करेंगे और फिर हम तीनों पटना मालदा एक्सप्रेस से 10:00 बजे रात्रि में पटना जंक्शन से ट्रेन पकडे़गें और लगभग तीन बजे सुबह भागलपुर पहुँचेगें. भागलपुर में अंशुमान भाई हमे रिसीव करेंगे और दिन भर मंदार पर्वत पर डेरा डालेंगे और घुमक्कड़ों की मस्ती होगी.

आनन फानन में टिकट आरक्षित किया गया. मेरा और पाण्डेजी को आरएसी मिला. जिसमे एक कंफर्म हुई और दुसरी आरएसी ही रह गई. आज मौसम ने भी रंग बदलना शुरू कर दिया और ठंढ भी अपनी साथी पछुआ पवन से मिलकर कहर ढाने को तैयार हो चुकी थी. निर्धारित समय पर हम तीनों ट्रेन मे सवार हो गये. एक कंफर्म सीट और एक आधी सीट हमारी प्रतीक्षा में दुबली हो रही थी. हमने उनका सम्मान करते हुये अपनी-अपनी तशरीफें टिका दी. अभी ट्रेन चलने में कुछ पल शेष थे और हम घुमक्कड़ों की शिखर सम्मेलन शुरू हो चुका था. हाँ, यह बताना जरुरी है कि इससे पहले मै सिर्फ बक्सर नरेश अभिषेक जी से ही मिला था पर सोनपुर के सरदार पाण्डेजी से पहली बार मिला. वो स्नेहवश मुझे भैया कह रहे थे और जब हम गले मिले तो लगा जैसे अपने ही छोटे भाई से मिल रहा हूँ. सच में यह घुमक्कड़ों में ही सम्भव है, जहाँ अंजान राहों के मुसाफिर हमसफ़र हो रहे हैं. आभासी रिश्ते वास्तविक रिश्तो में बदलने लगे हैं.

अब, हम तीनों एक साइड लोवर बर्थ पर बैठे घुमक्कड़ी के अनेकों आयामों को जीने को तैयार थे. हमारी डब्बे में एक फुटबाल टीम भी थी, जो भागलपुर मे अपना मैच खेलने जा रही थी. वो सब भी पूरी तरह से अपने लक्ष्य को लेकर उत्साहित थे और आगे की रणनीति तय कर रहे थे और इधर हम तीनों भी अति उत्साहित थे. कुल मिलाकर हमारे शयनयान में माहौल तूफानी था.

हमें पाँच घण्टे मिले थे जिसमें शायद कुछ देर बातें करते और फिर चादर ओढकर सो जाते, पर ये रात के पाँच घण्टे कब बीत गये पता ही नही चला. इस मिलन ने ट्रेन मे हम सब की नींद उड़ा दी थी, तो उधर अंशुमान भाई भी बेसब्री से करवटे बदल रहे थे. सर्द रात के सन्नाटे को चीरती ट्रेन, थरथराती हुई पटरियो पर धड़धडा़ती भागी जा रही थी, और हम सब अपने-अपने किये यात्रा अनुभवों को आपस में बांटते जा रहे थे.

सुल्तानगंज पहुँचते ही अंशुमान भाई को फोन किया पहली घंटी पर ही फोन उठा. अंशुमान भाई ने कहा आपलोग  स्टेशन पहुँचों, मै भी आ रहा हूँ. सुल्तानगंज से भागलपुर लगभग आधे घंटे का सफर है. ट्रेन अपनी तय समय पर भागलपुर जंक्शन के प्लेटफार्म संख्या 1 पर आ लगी और हमसब स्टेशन से बाहर निकल आये. सामने स्टेशन प्रांगण में भारत का विशाल तिरंगा शान से लहरा रहा था. ठंढ और धुंध ने पूरे माहौल को रोमांटिक बना दिया था. हमें लग रहा था जैसे हमसब किसी हिल स्टेशन पर पहुँच गए हो. दुबारा फोन मिलाया अंशुमान भाई ने कहा कि बस दो मिनट और दो मिनट में वो अपनी हवाहवाई पर उड़ते हुए सामने प्रकट हुए.

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इस मिलन की पहली मुलाकात ….
भागलपुर स्टेशन के बाहर घने कोहरे के बीच अहले सुबह

उतनी ठंडी सुबह में भी उनका चेहरा उन्नींदा नहीं लग रहा था. पूरे जोश और आत्मीयता से हम सब बारी-बारी उनके गले मिले. यहाँ कोई देखकर यह कह ही नहीं सकता कि हमसब आज पहली बार एक दूसरे से मिल रहे हैं. औपचारिकता नाम की कोई चीज ही नहीं दिखी. सबने ठंडी मे गरमा-गरम चाय पीने की इच्छा जाहिर की और सामने की टपरी पर जम गये. अंशुमान भाई, पता नहीं क्यूँ चाय नहीं पीते.

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ठण्ड इतनी थी की गर्म चाय भी पल में ठंडी पड़ गई

जंक्शन की चहल-पहल छोड़ हमसब पैदल ही घर की ओर प्रस्थान कर लिए. अभी पुरा भागलपुर गर्म लिहाफों में पडा़ सर्दी के मजे ले रहा है. रास्तों के सन्नाटे चीख रहे हैं जिसका हम चारों की बेख्याली पर कोई असर नहीं पड़ रहा है. अंशुमान भाई बाइक पर लगभग पैदल और हम तीनों पुरे पैदल चले जा रहे हैं. चुँकि अंशुमान भाई का घर स्टेशन से पास ही है तो चहलकदमी ही साथी रही. कभी-कभी गली के कुत्ते अंजान चेहरों को देखकर भौक लेते पर ज्योंही अंशुमान भाई को देख लेते तो वापस शांत हो जाते. उन्हें लोकल होने का फायदा मिल रहा था. जल्द ही, हमसब घर पहुंच गये और पहले से निर्धारित कमरे में खाली पड़े पलंग पर कब्जा कर लिया.

रात भर ट्रेन की थकान और सुबह की अनमोल नींद हमें अपने आगोश में लेने को तैयार थी. हमसब भी थोडी़ देर झपकी मारने के मूड मे आ गये, ताकि दिनभर हमसब अपनी घुमक्कड़ी को यादगार बना सके.

तय हुआ कि अभी पांच बज रहे हैं और अहले सुबह 6 बजे की भागलपुर हावड़ा एक्सप्रेस से चलेंगे और मंजिल होगी मंदार हिल. उधर, अंशुमान भाई ने सुबह के नाश्ते के लिए भाभीजी को लगा दिया था. किचन से आती पुरियों के तलने की सुगँध से हमें पता चल रहा था. खैर, हमसब थोड़ी देर के लिए झपकी लेने लगे और अंशुमान भाई अपनी तैयारियो में मशगूल से हो गए.

जल्द ही हमारी अनमोल नींद पर डाका पड़ गया और हम सब जल्दबाजी से तैयार हो स्टेशन के लिए निकल पड़े. छह बजे की ट्रेन है और छह बजने वाले है हमारी कदमों की रफ्तार स्वतः तेज हो गई. हमारी ट्रेन तीन नंबर प्लेटफार्म से छुटने को तैयार या यूँ कहिये की बस हमारे ही इंतजार मे दुबली हुई जा रही थी. हमारे आसन ग्रहण करते ही चल पड़ी. बाहर का मौसम पूरी तरह से कोहरे मे लिपटा पडा़ है . ट्रेन में ज्यादा भीड़भाड़ भी नहीं है. शायद ठंढी का असर होगा. इधर हम सबने जल्दबाजी में टिकट भी नहीं लिया. जिसका हमे बेहद अफसोस हुआ कि हमने यह गलत किया पर यह गलती जानबुझकर नहीं की गई थी. आनलाइन मोबाइल पर यूटीएस एप्प से टिकट कटाने की भरसक कोशिश की पर ट्रेक पर होने के कारण एप्प से टिकट नहीं बना सके. घुमक्कड़ी के बेहद उत्साहित क्षणों मे शायद ऐसा घटित हो जाना स्वाभाविक हो सकता है.

भागलपुर से मंदार हिल रेलवे स्टेशन लगभग 50 किमी की दूरी पर है जो सडक मार्ग और रेल मार्ग से बखूबी जुड़ा हुआ है. रेल से साधारण श्रेणी का किराया 15/- रुपया सवारी और बस से 60/- सवारी है और लगने वाला समय रेल से दो घंटे और सड़क मार्ग से डेढ़ घंटे से ढाई से घंटे का है. ट्रेन में हम दो के समुह मे आमने सामने बैठ गये और बातों का सिलसिला चल पडा़.

बात तो करेंगे, थोड़ी झपकी मार लूँ. फोटो #अंशुमान चक्रपाणि

शुरुआत मेजबान के तरफ से रही. अंशुमान भाई ने अपनी जीवन की अबतक की पूरी कहानी एक खुली किताब के रुप मे रख दी. उनके जीवन में आयी सभी उतार चढाव को उन्होने शेयर किया. वो बोलते गये और हमसब ध्यान से सुनते रहे. जल्द ही हम सब मंदार हिल स्टेशन पर पहुँच चूके थे. उस वक्त आठ बजने को थे और मौसम अब भी वैसा ही था, सर्द हवा अपने रवानी पर थी, धूप का नामों निशान नहीं था.

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स्टेशन छोटा सा, बिल्कुल फिल्मी लग रहा था. उतरने वालों मे हम चारो के अलावे अधिकतर मंदार पर्वत घूमने जाने वाले अधिकांश युवा वर्ग ही था, जो आदतन स्टेशन पर उतरते ही सेल्फी मोड मे आ चुके था. स्टेशन से बाहर दायीं ओर निकलते ही अस्थायी ऑटो स्टैण्ड नजर आया. जहाँ कुछ ऑटो लगे थे. चाय नाश्ते की दुकानें वहाँ से कुछ दूर बाजार में थी, पर वहाँ एक ठेले पर लगे साइन बोर्ड ने हमारा ध्यान खींचा, जिस पर बडे़-बडे़ अक्षरों मे लिखा था “शुद्ध चने का सत्तु” पिये. अब आप ही बताये कि जे चने को शुद्ध कैसे किया होगा ? शुद्ध तो सत्तु होता है. खैर अगर सत्तु और चना दोनों शुद्ध हो जाये तो सोने पर सुहागा. वैसे, काम की बात यह है कि चना और चने का सत्तु दोनों हीं स्वास्थ्यवर्द्धक खाद्य पदार्थ है और घुमक्कडो़ के लिए बडे़ काम की चीज है. ठेले से आगे बढ़कर, पास खडे़ एक विक्रम में हमसब सवार हो गये. हमारे अलावे चार और सवारियाँ भी थी. वहाँ से लगभग तीन किलोमीटर पर मंदार पर्वत का आधार-स्थल है ; जहाँ से ऊपर शिखर पर जाने के लिए रास्ता जाता है. प्रति सवारी 10/- के हिसाब से भाड़ा चुका कर हमसब मंदार पर्वत के नीचे पहुंच गये. यहाँ एक वार्षिक महोत्सव होने वाला है जनवरी 2020 में. जिसकी तैयारिया़ँ शुरु हो चुकी है. इसे बौंसी महोत्सव कहते हैं.

ऑटो से उतरते ही सामने पर्यटन विभाग के द्वारा लगाया गया बड़ा-सा सूचना पट्ट मिला. जिसपर वहाँ आस पास भ्रमण करने योग्य स्थलों के बारे में जानकारी दी गई थी. उस सूचना पट्ट पर एक चीज हमे यह खटकी कि वहाँ लगने वाली आकाशीय रज्जुमार्ग (रोपवे) की जगह “राजू मार्ग ” अंकित था. शायद यह एक लेखनीय भूल थी जो बोर्ड लिखने वाले की गलती थी पर उस गलती पर पर्यटन अधिकारी का उदासीन रवैया ही उसे सुधार नहीं होने दे रहा था.

सवा आठ बजने को हैं, मंदार पर्वत के आधार स्थल पर चहल पहल है. यह एक हरा-भरा स्थान है. यहाँ खाने पीने की दुकाने, भेंट और सौगात विक्रय केन्द्र और वाहन पार्किग स्थल भी है. यहाँ पहूँचते ही हम सब आस- पास के क्षेत्र का अवलोकन करने लगे. अभी लोग कम थे, कुछ श्रद्धालु सरोवर में स्नान कर रहे थे और कुछ पूजा पाठ. चाय नाश्ते की दुकाने खुल चुकी थी जहाँ अधिकांशतः स्थानीय ग्रामीण आपस मे वार्ता करते दिख रहे थे. हम सब ने एक बार फिर से चाय पीने की इच्छा जाहिर की और चाय का आनंद लेने दुकान पर जा पहुँचे. अंशुमान भाई, पता नहीं क्यूँ, चाय नहीं पीते.

वैसे आज चाय की दृष्टिकोण से विशेष दिन है. आज के दिन यानि 15 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय चाय दिवस के रुप में मनाया जाता है. हमारी इस मिलन समारोह को एक नया आयाम ये भी मिल गया कि अंतर्राष्ट्रीय चाय दिवस पर हम सब मिले और चाय को इंज्वाय कर रहे थे. इससे संबंधित कुछ बाते यहाँ साझा करना चाहूंगा जो मैने इंटरनेट पर पढा़ है कि अंतर्राष्ट्रीय चाय दिवस की शुरुआत 15 दिसंबर 2005 को नई दिल्ली से हुई थी लेकिन एक वर्ष बाद यह श्रीलंका में मनाया गया और वहां से विश्व भर में फैला. भारत में चाय के निर्माता, जिसमें छोटे चाय उत्पादक और मजदूर संघ चाय दिवस को पारिश्रमिक, जीवन स्तर तथा जीविका संबंधी अपने अधिकारों को रेखांकित करने के अवसर के रूप में मनाते हैं. हम सब चाय के साथ बिस्कुट का भी मजा ले रहे थे. पर, अंशुमान भाई, पता नहीं क्यू चाय नहीं पीते.

मंदार पर्वत आधार स्थल की बात करें तो यहाँ एक बडा़ सा मनोहारी सरोवर है, जिसका नाम पापहरणी है यानि पापों को नाश करने वाली . इसकी मान्यता है कि इसमें स्नान करने से चर्मरोग का नाश होता है. श्रद्धालु लोग इस सरोवर में स्नान कर मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं. मकरसंक्रांति पर विशेष मेला लगता है. सरोवर के बीचों बीच एक खूबसूरत मंदिर बना है जो देवी लक्षमी और भगवान नारायण को समर्पित है, जो किनारे से पैदल पुल पथ से जुड़ा है. सरोवर के एक किनारे पर समुद्र मंथन से जुड़ी प्रतिकृति बनी हुई है. उसके बगल में ही सफा होड़ धर्म के संस्थापक स्वामी चंदर दास के द्वारा बनवाया गया सफाधर्म मंदिर है.

सरोवर की सीढियों से ऊपर चलकर आगे बढते है और वही से मंदार शिखर पर जाने को इंद्रधनुषी सीढियाँ मिलती है. इन्ही के सहारे पर्यटक शिखर तक पहूँचते हैं. शूरूआत में चढाई सामान्य है पर आधे रास्ते के बाद यह चढाई तीखी हो जाती है. अभी पर्यटन विभाग की तरफ से रोपवे बनाने का काम चालू है जो लगभग पूर्णता को प्राप्त हो रहा है और जल्द ही एक शुभ मुहूर्त पर विधिवत उद्घाटन के बाद जनमानस को समर्पित कर दिया जायेगा. रास्ते में बहुत सारे गुफा और जल कुंड भी है और सबकी अपनी मान्यताएँ हैं . ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व रखने के बावजूद यह स्थल अभी भी पूर्णतया विकसित नहीं है. पूरे चढाई के दौरान पीने की पानी की उपलब्धता और व्यवस्था नहीं है. लघुशंका निवारण हेतु सुलभ शौचालय नहीं है. पीने की पानी के लिए स्थानीय लोगो द्वारा लगाये गए नीबू पानी शरबत और चाय नाश्ते की दुकानें ही एकमात्र स्रोत है और लघुशंका के लिए पूरा पर्वत क्षेत्र उपलब्ध है. यात्रियों और दुकानदारो द्वारा बेतहाशा गंदगी फैलायी गयी है और जिसकी साफ सफाई भगवान भरोसे है. पहाड़ और जंगल होने का यह कतई मतलब ना है कि वहाँ कुडे़ का अम्बार लगा दिया जाये. वहीं यहाँ आने वाले गैरजिम्मेदार पर्यटको द्वारा मूर्तियों और पाषाण भित्तिचित्रों पर अपने नाम इत्यादि लिखकर उन्हें विकृत किया जा रहा है जिसे देखने या रोकने वाला कोई नहीं है.

सरोवर की सीढियों से चलकर हम चारो अब मंदार शिखर के रास्ते वाले इंद्रधनुषी सीढियों पर आ गये. अभी लगभग 9:00 बजने वाला है. हल्की गुनगुनी धूप निकल आयी है पर ठंडी का असर बरकरार है. हम चारो हँसते खेलते मस्ती करते शिखर की ओर अग्रसर है. जैसे जैसे हम ऊपर की ओर बढ रहे हैं नीचे का नजारा सुंदर दिख रहा है. पपहरणी सरोवर और लक्षमी नारायण मंदिर बहुत ही सुंदर और मनोहारी दिख रहा है. चूँकि कोहरे का असर कम है, फिर भी एक धुंधलका आवरण पूरे दृश्य को रुमानी बना रहा है. हम सब शुरुआत मे सीढियों से चढ रहे थे कुछ ऊपर आने के बाद सीढियों से हटकर चढती ढलान पर चलने लगे. पत्थर चिकने थे पर जूते का ग्रिप बन रहा था तो चलने में मजा आ रहा था. सभी के मोबाइल एक दूसरे की तस्वीर ले रहे थे. अंशुमान भाई ने गले मे कैमरा लटका रखा था और वे पूरे वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर की तरह लग रहे थे. मजा आ रहा था.

मंदार पर्वत पर जैन धर्म के तीर्थंकर वासुपूज्य जी की तपोस्थली और मंदिर

लगभग 10:00 बजे हम सब मंदार शिखर पर थे. जहाँ पर जैन धर्म के तीर्थंकर वासुपूज्य जी की तपोस्थली और मंदिर है. अभी मंदिर के द्वार बंद है और हमारे पास भी काफी समय है. शिखर पर अवस्थित जैन मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य प्रगति पर है. मंदिर के गुंबद के रंगरोगन की तैयारी चल रही है साथ ही मंदिर के प्रांगण में प्रस्तर पट्टियो के बिछाने का कार्य आरंभ है. कार्यकारी ठीकेदार से वार्तालाप के क्रम में पता चलता है कि निर्माण कार्य में लगने वाली देरी की मुख्य वजह शिखर पर पानी के स्रोत की कमी और निर्माण सामग्रियों के ढोने मे लगने वाला समय है. एक सीमेंट की बोरी नीचे से ऊपर लाने मे 150/- बोरी, एक बोरा बालू के लिए 60/-और एक छोटे ड्रम मे पानी लाने के लिये 60/- ढोने की लागत लग रही है जबकि वहाँ पर पूर्व से ही सामान ढोने वाली पुल्ली लगी है. पर वो काम नहीं कर रही है. तीर्थंकर वासुपूज्य जी के पंचकल्याणक के पास में ही रोपवे का स्टेशन बना है और जेनरेटर भी लगा है पर उन सबका सामान भी पुल्ली से नही लाया गया है. मजदूरों द्वारा ढोकर ही लाया गया.

अभी यहाँ हम चार यारों के सिवा सिर्फ भगवान वासुपूज्य जी ही है जो हमारी घुमक्कड़ी के किस्सों को सुनने वाले हैं. थोड़ी देर वहीं आस पास घुमने के बाद हम सब एक बडे़ से चौकोर पत्थर पर फैल गये. अब बारी थी घुमक्कड़ी के प्रति अपने अपने नजरिये और अनूभवो को एक दूसरे के साथ साझा करने की. जो शुरू हुआ अंशुमान भाई और ज्योति मोथा जी की पिछली यात्रा से. मंदार पर्वत पर अंशुमान भाई को छोड़ हम तीनो पहली बार आये हैं. अंशूमान भाई इसके पहले हमारी #जीडीएस समूह की सुपर वुमन ज्योति मोटा जी के साथ आ चुके हैं. अपने पिछले अनुभव जो उन्होने बाइक से की थी को साझा किया. बहुत सी बाते ज्योति बहना की भी हुई. घुमक्कड़ी के प्रति उनका जीवट रूझान और सोलो घुमने के हौसलो को हम सब ने पूरे मन से सराहा कि कैसे हमारी प्यारी बहना, ज्योति मोटा अपने धार्मिक तीर्थंकरों के पावन स्थली के दर्शन और भ्रमण करने अकेली मुंबई से बिहार के मंदार पर्वत के शिखर तक आ पहुँची थी. इस मंदार पर ज्योति इस कदर खो गयी कि उन्होने यहाँ बकायदा भजन कीर्तन और ध्यान तक लगाया. वासुपूज्य भगवान के आशिर्वाद स्वरुप यहाँ के पुजारी जी ने उनके और अंशुमान भाई के लिए प्रसाद भी बनाया और खिलाया था. फिर बात निकली बाइक से सोलो घुमने की. मैने प्रतीक गाँधी, मुंबई का जिक्र किया और कई बातें प्रतीक भाई के सोलो घुमक्कड़ी की साझा की. उनकी मानसून में बाईक राइडिंग जो वेस्टर्न घाट में अंबोली जलप्रपात, डांडेली के टाइगर रिजर्व फारेस्ट में अकेले घुमना, अगुम्बे के वर्षा वन और कस्तूरीअक्का का अकेला मेहमान बनना और कोस्टल एरिया के समुद्री किनारों की मधुर यात्राओं की चर्चा की. उनके मैप रीडिंग और मैप नैविगेशन जैसी विधाओं की भी भरपूर चर्चा हुई. मैनें अपने और अभ्यानंद सिन्हा, दिल्ली की मदमहेश्वर की यात्राओं की खट्टी मिट्ठी यादों को फिर से जीया. तो अभिषेक पाण्डेजी ने मेरे साथ की काकोलत बाइक यात्रा और अभी हाल मे ही संपन्न महेश्वर मिलन की बातों को साझा किया. वही हमारे नये भ्राता धर्मवीर पाण्डेय उर्फ़ पाण्डेय जी, जो सोनपुर से है ने अपनी कैदारनाथ, तुंगनाथ की यात्रा को साझा किया. इन घुमक्कड़ी के अनुभवों को साझा करने के दौरान हमारे समूह के अनेको मान्यवर सदस्यों को भी हमने याद किया. फेसबुक समूह पर उनकी पोस्टो और अनमोल खुबसुरत तस्वीरो को भी याद किया.

समय तेजी से भाग रहा था और हम बस अपने मे ही खोये थे. इस तरह से अनेकों वृतांत कभी अभिषेक पाण्डेजी तो कभी धर्मवीर पाण्डेजी और मौका मिलने पर मै भी सुनता और सुनाना चलता ही रहा. दोपहर होने को आई है पर सूरज अभी भी बादलों के साथ आँखमिचौली खेल रहा है. पछुआ पवन इतनी ऊँचाई पर और घमण्ड मे चल रही है. उसके इठलाकर चलने की सांय सांय आवाज दिल की धड़कने बढा़ रही है. चारों ओर फिंजाओं मे एक मदहोशी का आलम छा रहा है. इतनी शांति हमारे घरों के आस पास कहाँ मिलती है. हम चारों ने पत्थरों को हीं अपनी शैया बना लिया है और चित लेटे हुए विशालकाय अनंत मेघाच्छादित नभ को एकटक निहारते हुए उसी में खोने से लगे हैं. शायद हम सब उसके पार देखने को लालायित है एकदम निःशब्द…

अब शिखर पर और भी लोग पहूँचने लगे हैं. यहाँ का शांत वातावरण लोगों के कोलाहल से परिपूर्ण हो रहा है. नवयौवनाओं की खनकती हँसी के संग-संग नवयूवको का अट्टहास दूर दूर तक वादियों में गूँज रहे हैं. स्कूली बच्चों का झुंड पहाड़ पर रंग बिरंगे फूलों की मानिंद फैले हुये है. खेलकूद रहे है. कुछ ऊँचाई से नीचे देखकर विस्मय से चीख रहे हैं तो कुछ हास्य रस घोलते हुए उनका अनुकरण कर रहे हैं. माहौल बडा़ खुशनुमा बन चुका है.

अब नींबूपानी वालों, आइसक्रीम वालों की छोटी छोटी दुकाने बाकायदा सज गई है और नन्हें खरीददार भी मोलभाव की कोशिश मे लगे हैं. हमारे साथियों को अब भूख लगने लगी है. अंशुमान भाई, घर से ही खाने का पूरा डोज अपने पिटारे में पैक करवा कर लाये थे, पर वे मंदिर प्रांगण के पास भोजन नही करना चाह रहे थे. तो हम सब वहाँ से कुछ हटकर एक लटकते हुये चौकोर पत्थर को अपना भोजस्थल बनाते हैं. फिर चलता है पुरियों, मस्त आलूगोभी की सब्जी और मिठाइयों का दौर. जो करीब चालीस मिनट तक बात करते और खाते -खाते पूरा होता है.

मौसम अब भी बेईमान ही बना है. खाना खाकर पुनः घुमक्कडो और घुमक्कड़ी की बातों के साथ शुरू हो जाती है फोटोग्राफी का दौर. सभी ने अपने मोबाइल निकाल लिए हैं. अपने भीतर छुपा फोटोग्राफर को और रोक पाने की हिम्मत ना रही.

अचानक से मौसम ने करवट ली और घने बादलों ने अँधेरा कर दिया और फिर हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो गई. हम सब वहाँ से थोडा़ नीचे बने एक प्रस्तर शेड में आ गये ताकि बारिश का रुख देखते हुए अपना कार्यक्रम जारी रखें पर वहाँ पहूँचते ही बारिश तेज हो गई.

शिखर धीरे धीरे खाली होने लगा है. पर हमसब वही रुककर मौसम का मजा लेने लगे. बारिश हमारी पाँचवे साथी बन चुकी है जाने का नाम नहीं ले रही . काफी दे तक हमसब उस शेड में बारिश के रुकने का इंतजार करते रहे. अब हमने भी नीचे उतरने का फैसला किया और बारिश कम होते ही चल पडे़.

नीचे पहूँचने मे ज्यादा वक्त नहीं लगा. पर हम सब भीग गये थे. ठंडी के मौसम मे भीगे रहने पर सर्दी जुकाम हो सकती है यह चिन्ता भी हो रही थी. आधार स्थल पहूँच कर गरमा गरम चाय और समोसे का आर्डर कर दिया गया. बारिश हो रही थी ठंडी बयार तन मे झुरझुरी पैदा कर रही थी इस वक्त गरमा गरम चाय और समोसे स्वर्गानुकूल राहत दे रहे थे. अंशुमान भाई, पता नहीं क्यू चाय नहीं पीते है.

चाय नाश्ते के बाद हमलोग स्टेशन जाने के लिए सवारी का इंतजार कर ही रहे थे कि वहाँ बतखों का एक जोडा़ दिखा जो संभवतः किसी स्थानीय का पालतू होगा. बहुत निडरता से दोनो बतख लोगोके बीच घुम रहे थे. मैने खाने को बिस्कुट देना चाहा पर वो नहीं खाये. शायद उन्हे कुछ बेहतर स्वाद का इंतजार हो. खैर अब हमसब होटल से निकल सड़क पर आ गये

बारिश रुक गई थी तो हमसब टहलते हुये ऑटो स्टैण्ड की ओर बढने लगे. शायद बारिश के कारण और पर्यटको की संख्या कम होने के कारण ऑटो नही थे. हाँ, निजी चारपहिया वाहन और स्कूलों के भ्रमण पर आये बसें लगी थी. पर वो सब हमारे किसी काम की नहीं थी. अंशुमान भाई ने बताया कि यहाँ से ढाई तीन किलोमीटर पर राष्ट्रीय राजमार्ग है, जहाँ से हमें वापसी की बस मिल जायेगी. फिर क्या था चारो घुमक्कड़ चल पडे़ सड़क के सीने को रौंदते हुये, बारिस की बुँदे रह रह कर हमें भिगों रही थी.

करीब 4:00 बजे हम सब राष्ट्रीय राजमार्ग पर थे. दस मिनट में ही हमारी बस मिल गयी. हम सब अपनी अपनी सीटें पर जा धँसे. दिनभर की मजेदार घुमक्कड़ी को जेहन मे समेटे हुये हम खो से गये थे. बस द्रुतगति से अपने  गन्तव्य की ओर भाग रही थी. हमारी वापसी की ट्रेन रात 12:00 बजे है. चिंता की कोई बात नहीं थी हमारे पास अभी पर्याप्त समय था आराम करने और साथ बहुमूल्य समय बीताने का. करीब ढाई घंटे के बाद हमसब अपने गंतव्य पर थे पर फिल्म अभी बाकी थी.

अंशुमान भाई ने हमे स्थानीय बाजार की स्वादिष्ट व्यंजन चखाने का कार्यक्रम बना डाला. पहले हमने स्वादिष्ट गरमा गरम अनरसा चखा, इसी क्रम में अंशुमान भाई ने अंगप्रदेश की विलुप्त होती लोक चित्रकला मंजुषा के बारे में बताया. मंजुषा चित्रकला भागलपुर के जनमानस से जुड़ी एक महत्वपूर्ण कला है. जो लुप्त हो रही है. उद्योग विभाग और उपेन् महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान द्वारा इस कला के उत्थान और बढावा देने के क्रम में महत्त्वपूर्ण कदम उठाये जा रहे है. यह लोकचित्रकला स्थानीय बिहुला विषहरी की लोककथा से प्रेरित है. इसे विश्व की प्रथम चित्रकला से संबंधित कला भी माना जाता है. यह एक श्रृंखलाबद्ध चित्रकला पद्धति है. इसके बाद हमलोग एक स्थानीय मिठाई की दुकान पर गये. जहाँ हम घेवर खाने पहुँचे, पर अफसोस उस वक्त नहीं मिला तो हम सब ने लौंगलता मिठाई चखा. फिर हम सब स्वाद का सफर जारी रखते हुए खलीफाबाग चौक पर स्थित मोमो हाउस गये और स्टीमड और फ्राइड पनीर मोमो का मजा लिया. सरस स्वाद का यह मिलन खाते खाते अपनी पूरी रवानी पर पहुँच गया था.

अब हम सब अपने घोंसले की ओर चल पडे़ यानि, अंशुमान भाई के घर. घर पहुंच कर सब पलंग पर यूँ पसर गये जैसे अलगनी पर कपड़े पसरते है. लेकिन अंशुमान भाई अभी भी उर्जावान लग रहे थे. झट से चाय बिस्कुट का इंतजाम हुआ. उधर रात का खाना तैयार हो रहा था. चाय पीते समय अंशुमान भाई ने माता जी, उनकी धर्मपत्नी और दोनो प्यारे बच्चों से मिलवाया. उनका परिवार सहृदयता से हम सब से मिले. बातों – बातों में समय निकला जा रहा था. फिर रात के खाने का दौर चला. जिसमे स्वादिष्ट खीर, गरमा गरम पूरिया, जायकेदार सब्जी और मंचूरियन तथा लजीज मिठाइयों थी.

रात के 10:30 बज चुके थे और हम सब स्टेशन की ओर प्रस्थान करना चाह रहे थे. परिवार वालो से विदा ले हमसब स्टेशन को चल पडे़ पर अंशुमान भाई अभी भी हमारे साथ थे. वे इस सर्द रात में भी हमें विदा करने स्टेशन तक आये. अभी ट्रेन आने में समय था, तो फिर से घुमक्कड़ी की बात निकल पड़ी. पर इस बार भविष्य के प्लान बनने लगे. अंशुमान भाई से विदा लेते समय हमसब भावुक हो गये. पर पुनः मिलने के वादे के साथ उन्होने हमसे विदा ली. थोडी़ ही देर मे ट्रेन के एक नंबर प्लेटफार्म पर आने की उद्घोषणा हुई.

आज का दिन सच मे तूफानी रहा. यह जीडीएस बिहार के घुमक्कडो का शानदार मिलन रहा. ट्रेन आ चुकी है और मेरी सीट शयनयान 5 में और दोनों पाण्डेजी की शयनयान 1 में. रात और नये दिन का मिलन का यह समय हमें  सदैव याद रहेगा और याद रहेगा घुमक्कड़ी परिवार, जो आभासी होने के बावजूद वास्तविक दुनिया में भी वैसा ही है. प्यार और स्नेह भरा.

भागलपुर की यादें शेष रह गयी हमारे अन्तर्मन में…

birendra

बिरेन्द्र कुमार का संक्षित परिचय :

पटना के बिरेन्द्र कुमार जी की शुरुआती शिक्षा डॉन बास्को स्कूल और स्नातक में कॉमर्स की पढाई पटना विश्वविद्यालय में हुई. बिरेन्द्र जी काफी दिनों तक पटना के महावीर संस्थान न्यास समिति से भी जुड़े रहे. बिरेन्द्र जी स्वाभाव से खुशमिजाज और जिंदादिल इन्सान हैं. जब भी मुलाकात हुई, हमने चेहरा हमेशा खिला ही पाया. अपने ब्लॉग पर इंट्रो में बड़ी खुबसुरत लाइन लिखी है –
“खुश रहना, खुश होने से ज्यादा आसान है!”

जन्मदिन : 05 जनवरी

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ब्लॉग : khanabadoshimeri.blogspot.com

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10 thoughts on “एक तूफानी मिलन”

  1. वाह, भाई! जबरदस्त हो गया। मैने तो सोचा भी नहीं था कि इस कोयले को तराश कर आप हीरा भी बना सकते हैं। आपने इसे एक यादगार बना दिया।
    आभार आपका.. ❤ से

    1. सच में एक यादगार और तूफानी मिलन रहा था, सदैव याद रहेगा

    2. भाई साहब,
      मोतियों को आपने ही पिरोया है. बस अपने यादों में सदा बसाये रखने के लिए इसे यहाँ स्थान दिया, ताकि कभी भूल न जाऊ.
      ऐसे यादगार मिलन को एक स्थान दे दिया बस, ताकि यह गुम न हो जाए.

  2. फिर से अपनी यादों को ताजा करना एक सुखद अनुभव दे गया, वाकई एक तूफानी मिलन था, बहुत ही शानदार

    1. भाई,
      तभी इसे संजो कर रखना चाहता हूँ. आज दिन में इसे कई बार पढ़ गया. सबकुछ कल ही बीता हो ऐसा लग रहा है.

  3. शानदार जबरजस्त जिंदाबाद… ऐसे मिलन होते रहने चाहिए। क्या खूब लिखा गया है।हर पल को संजोया है।

  4. मैं पहली बार आप के ब्लाग को पढ़ रहा हूं। आप द्वारा किये गये धाराप्रवाह चित्रण की जीवंतता से मंत्र-मुग्ध हो गया। चरैवेति चरैवेति ।

    1. अजय कुमार मिश्रा जी,
      कई कारणों से नई पोस्ट नहीं कर पा रहा हूँ, पर जल्द ही नई पोस्ट के साथ हाजिर होऊंगा.
      ब्लॉग के बाकि पोस्ट को भी देखे और आपनी राय देते रहे. इससे ब्लॉग को पाठक के सुविधानुसार बनाने में मदद मिलती है.
      धन्यवाद आपके शुभकामनाओं के लिए.

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