मेरी पूर्वोत्तर यात्रा : मेरे सपनों का प्रदेश मेघालय – भाग 3
मेरी आसाम और मेघालय यात्रा के पहले भाग को मेरे सपनों का प्रदेश मेघालय पर जाकर पढ़ा जा सकता है और दुसरे भाग को पढने के लिए भागलपुर से गुवाहाटी ट्रेन यात्रा पर जाएँ. अभी तक आपने पढ़ा हमदोनों कामख्या स्टेशन उतरकर मालीगाँव के सस्ते से होटल पहुँच, फ्रेश होकर माँ कामख्या के दर्शन को निकल पड़े. चलिए आगे चले.
गूगल मैप से मंदिर तक जाने का रास्ता पूछा तो गूगल ने बताया कि मालीगाँव से मंदिर लगभग पांच किलोमीटर दूर है. बाहर आकर पता किया, तो मुख्य सड़क से बस मिलने की बात पता चली. तेज कदमों से हम मुख्य सड़क पर पहुँचे और एक बस में सवार हो गए. कंडक्टर को कामख्या मंदिर के रास्ते पर उतरने को बोल खाली पड़ी सीट पर बैठ गए. पांच मिनट बाद ही कंडक्टर ने हमें इशारा किया. सामने ही कामख्या मंदिर का भव्य गेट था. बस से उतरकर मंदिर जाने के लिए सवारी का पता किया तो मालूम हुआ, जाती तो यही से है, पर शाम हो चली है तो देर से मिलेगी. गूगल बाबा हमें पैदल जाने के लिए सिर्फ एक किलोमीटर का रास्ता बता रहा था, तो मुझे भीषण कुराफाती कीड़े ने काट लिया और हम पैदल ही गूगल मैप के बताये रास्ते पर चल पड़े, जिसने हमें किसी ऊँची जाती गली में घुसा दिया. जो आगे जाकर संकरी और अँधेरे में गुम होती जा रही थी. अँधेरे में आगे का रास्ता उलझता जा रहा था. मुरली ने बोला शायद हम किसी शोर्टकट पर आ गए. अँधेरे में और आगे जाना कतई ठीक न लगा, चढ़ाई इतनी ज्यादा थी कि मैं तो पसीने से लथपथ जो गया. हमलोग वापस मुख्य सड़क पर आ गए, शायद हम जैसों के लिए ही लौट के बुद्धू घर को आये मुहावरा बना हो. मैं इसलिए हमेशा कहता हूँ हमारे बाबा (राह चलते लोग) गूगल बाबा से कहीं बेहतर गूगल होते हैं. गूगल मैप सिर्फ बड़े महानगरों में ही सटीक जानकारी दे सकती है, इसलिए इसपर हमेशा भरोसा करना कई बार आपको विचित्र और खतरनाक परिस्थितियों में पहुँचा देती है.
फिर से ज्यादा देर खड़े होकर गाड़ी का इंतजार न कर सका, आखिर हाइपर एक्टिव जो ठहरा. तो इस बार मुख्य मार्ग पर ही आगे बढ़ना शुरू कर दिया, कुछ दूर चलने के बाद एक मारुति वैन को आते देखकर रुकने का इशारा किया. थोड़ी आगे बढ़ने के बाद गाड़ी के ब्रेक की तेज आवाज ने अंधेरे और लगभग सन्नाटे में लिपटी उस पहाड़ी रास्ते की शांति भंग कर दी. गाड़ी थोड़ी दूर जाकर रुकी, हम झट से उसमें सवार हो लिए. इतना थक चुकने के बाद गाड़ी मिलने पर माँ कामख्या को याद कर आभार जताया. गाड़ी वाले से पता चला, पांच बजे के बाद जाने के लिए कम ही गाड़ियाँ मिलती है.

कामख्या मंदिर के गेट पर बिलकुल सन्नाटा फैला था, कोई भीड़ भाड़ नहीं, शायद मंदिर के कपाट दर्शन के लिए बंद हो गए हैं. अन्दर प्रवेश करते ही मन में बचपन से सुने कई किस्से कहानियाँ उबाल मारने लगे. तांत्रिकों द्वारा किसी को भी बकरी बना देने की बात मन में आई, अभी इस मुर्खता भरी अफवाहों पर मुस्कुराने ही वाला था की सामने से भेड़ और बकरियाँ का झुंड आता दिख गया. मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. क्या सच में ये हमारी तरह ही कोई मानुष था, जो अब भेड़-बकरी बने घूम रहे हैं मंदिर प्रांगन में. कुछ समय तक उन भेड़-बकरियों को निहारता रहा, फिर मुरली को दिल की बात बताई और दोनों मिलकर इस बचकाने बातों पर खूब हँसे. भेड़-बकरियाँ बनाने वाले का डर जाते ही मंदिर से कीर्तन-भजन की सुरीली आवाज के साथ ढोल और मंजीरे की आवाज सुनाई देने लगी. हम भी माँ कामख्या के दरबार की दिव्यता और शक्ति के आगे नतमस्तक हो आवाज की दिशा में बढे. मंदिर के मध्य भाग का द्वार खुला था और वही पर संध्या आरती और वंदना हो रही थी और जबकि मंदिर में चाहुओर सन्नाटा पसरा था. यहाँ इतनी भीड़ थी की हमें बड़ी मुश्किल से बैठने की जगह मिली. आधे घंटे तक संध्या वंदन का आनंद लिया.



समाप्ति के बाद हमें वापस जाने की चिंता हुई, गुवाहाटी में रहने वाले मित्र ने पहले ही बता दिया था की मंदिर से लौटते हुए वहाँ मंदिर से सामने के होटल में शाकाहारी भोजन अच्छा मिलता है, चाहें तो रात्रि भोजन कर सकते हैं. मंदिर से निकलते ही भीड़-भाड़ वाले साफ सुथरे से रेस्टोरेंट में, पेट पूजा के लिए जम गए. 80 रूपये की थाली में चावल भी थे, पर हमने 70 रूपये की दो थाली ऑर्डर की. चार रोटी-दो सब्जी-दाल-अचार. भूख भीषण लगी थी, झटपट रोटी पर रोटी साफ करने लगा. पर ये क्या मुरली तो प्लेट लेकर बैठे ही थे. पूछा क्या हुआ भाई, खा क्यों नहीं रहे ? बीबी की याद आ गई क्या ? मैंने सोचा नई-नई शादी हुई है, क्या मालूम घर में बीबी ही अपने हाथों से खाना खिलाती हो, इसलिए भाई सदमें में बैठा हो. पर यहाँ तो भाई कहानी ही अलग थी….
मुरली ने मुहँ बनाते हुए जवाब दिया –
ये कोई खाना है भला ? कोई स्वाद ही नहीं है.
मैं… भाई, अभी तो पार्टी शुरू हुई है, मैंने बताया था खाने को मिलेगा या नहीं पता नहीं. वैसे खाने में बुराई क्या है ? खा ले चुपचाप, देर हो जाएगी.
मुरली… बेकार है रोटी. खाने में कोई टेस्ट भी नहीं.
मैं… दूसरी चावल वाली प्लेट ले ले.
मुरली… नहीं मुझे नहीं खाना ये खाना.
मैं… ठीक है मुझे फिनिस करने दे, किसी दूसरी चकाचक रेस्टोरेंट में चल के खा लेना.
मुरली… अच्छा जी, मतलब आप फिनिस करने के बाद जाओगे ?
मैं… हाँ, मेरा तो हो लिया.
मुरली… नहीं, मुझे नहीं खाना फिर. आप भी चलो.
मैं… भाई, मैं अन्न का अपमान नहीं कर सकता. हाँ, खाना ख़राब हो चूका हो तो अलग बात है. वैसे मुझे खाना ठीक ही लग रहा है.
मुरली… फिर मुझे नहीं खाना.
मैं… ठीक है फिर यही खाओ और चलो जल्दी. देर हो रही है, शेयर्ड टैक्सी न मिली तो फिर टैक्सी लेनी पड़ेगी और सारा भाडा तुम्हें ही देना होगा, सोच लो.
मैं उठकर वाश बेसिन तक गया और वापस आया तो मुरली की प्लेट भी खाली हो चूकी थी. इतनी जल्दी प्लेट कैसे साफ हो गए. मुझे संशय हुआ जरुर उसने रोटी डस्टबिन में डाल दिया होगा. पर मैंने ज्यादा ध्यान न दिया और गाड़ी देखने बाहर आ गया. पीछे से मुरली भी बाहर आ चुके थे. इस बीच मैं यही सोच रहा था, यार ये बंदा मेरे साथ 7 दिन बिताएगा कैसे ? बंदा तो अपने कम्फर्ट लेवल से बाहर आने को तैयार ही नहीं है. दोनों चुपचाप गाड़ी में बैठकर मुख्य सड़क और फिर वहाँ से पैदल ही दो किलोमीटर दुर अपने आज के आश्रय अस्थली होटल के बिस्तर की ओर बढ़ चले. रास्ते में दोनों लगभग चुप ही रहे. होटल के पास पहुंचकर फिर से घटिया खाना और घटिया होटल की बात होने लगी. मुरली ने कहा आप तो बिल्कुल बदल गए हो, कहाँ तो कहते थे –
“Live Life King Size” और यहाँ तो पूरा ट्रांसफॉर्म हो गए.
आपके अंदर का King तो खत्म हो गया. यहाँ तो एडजस्ट कर रहे हो आप.
देखो अपने इस बिस्तर की ओर देखो, छोटा सा बाथरूम, कैसे रहे कोई यहाँ.
भाई हमने कौन सा घर बसाना है या हनीमून मनाने आये हैं. रात में सोना ही तो है. जब बैकपैकर बनकर निकला तो बजट बिल्कुल कम रखने की कोशिश की. स्लीपर में रिज़र्वेशन, कामाख्या में 120 रूपये की डोमेट्री में ठहरना बैकपैकर, यायावरी, फक्कड़पन का ही हिस्सा है. वैसे सारी बातें मैंने पहले ही बता दी थी. शिलांग में गेस्ट हाउस का इंतजाम मित्र ने कर दिया है, वो भी कॉटेज. तो वहाँ कोई झंझट ही नहीं, मुझे ये ट्रिप 5000 के अन्दर करना है. आगे क्या-क्या होने वाला है सोच लो.
पहले पर्यटक था और साल-दो साल में एक-आध पर्यटन कर लेता था. पर घुमक्कड़ी का नशा ऐसा चढ़ गया और उसी में हमेशा धुत रहता हूँ. अब तो इसी यायावरी और फक्कड़पन में मजा आ रहा है. यही मेरे लिए आनंद है, यही परमानंद और यही निर्वाण, यही समाधि और यही “King Size Life” भी बन गया मेरे भाई, भले तुझे समझ न आ रहा. पहले पर्यटक था, अब घुमक्कड़ी सीख रहा हूँ.
मुरली अभी भी असहमति में बुदबुदाये जा रहे थे. अब मुरली को कैसे समझाऊं, साल में 7–8-10 यात्रायें करने को ही “Live Life King Size” कहते हैं. उसमें भी अधिकतर यात्रायें पारिवारिक हो तो इससे ज्यादा “Live Life King Size” क्या हो सकता है. शरीर थककर चूर हो चूका था, इसलिए इस सस्ते से जगह पर मच्छरदानी लगी बिस्तर भी किसी राजमहल से कम प्रतीत न हो रही थी. कब निद्रा देवी ने अपने आगोस में ले लिए, कुछ पता न चला.
क्यों सही तो कह रहा हूँ ना ? आप क्या कहते हो ?
आपके विचारों और मतों का इंतजार रहेगा.
शुभरात्रि… स्वीट ड्रीम
शेष अगले भाग में…
“तब तक स्वस्थ रहिए, मस्त रहिए
मानसिक यायावरी करते रहिए मेरे साथ …”
अगर आपको ये यात्रा वृतांत पसंद आया हो, तो ब्लॉग को सब्सक्राइब करना ना भूलें. आप फेसबुक पेज “यायावर एक ट्रेवलर”, ट्विटर और इन्स्टाग्राम के माध्यम से भी जुड सकते हैं. ताकी नए यात्रा वृत्तांत और फोटों आप तक बिना देर पहुँचते रहें.
घुमक्कड़ और पर्यटक में खास फर्क नहीं कर पाते और अपने कंफर्ट से बाहर नहीं आ पाते और बाद में कहते हैं उनका खर्च ज्यादा हो गया। जबतक ये फर्क है तबतक यात्रा में साथ होकर भी असहमति बनी रहेगी।
बिरेन्द्र भाई,
सच ही कहा आपने.घुमक्कड़ और पर्यटक में फर्क न समझ पाने के कारण असहमति होती है. एक घुमक्कड़ और पर्यटक में फर्क मात्र अपने कंफर्ट लेवल से बाहर आने का है और कुछ नहीं.
आप का विचार लिव लाइफ किंग साइज अच्छा लगा।
अजय कुमार मिश्रा जी,
ये मेरे अपने विचार हैं, हो सकता है कई लोग इससे सहमत ना हों.
ये जीवन को देखने का अपने-अपने नजरिये पर निर्भर करता है.
मेरे लिए जीवन को जीना ही किंग साइज लाइफ है.
आपको मेरे विचार पसंद आए, आभार आपका.