विक्रमशिला विश्विद्यालय – Vikramshila University- The Forgotten University In Bhagalpur

भागलपुर का परिचय


सिल्क सिटी के नाम से जाना जाने वाला भागलपुर, बिहार के बड़े शहरों में से एक प्राचीन शहर है, जो महाभारतकालीन सूतपुत्र कर्ण की नगरी यानि अंग प्रदेश थी | भागलपुर पटना से लगभग 225 किलोमीटर और कोलकता से 475  की दुरी पर रेलवे की लूप लाइन रेलखंड पर स्थित है | इस रेलखंड पर, रेलवे की उदासीनता की वजह से  आने-जाने के लिए ट्रेन की उपलब्धता बहुत ही कम है, जिसकी वजह से हमेशा मारा-मारी मची रहती है | वैसे अभी ये मेरी कर्मभूमि है, पर मुझे ये शहर गंदगी की वजह से कुछ खास पसन्द नहीं | इन सबके वाबजूद यहाँ विश्व प्रसिद्ध विक्रमशिला महाविहार के भग्नावशेष, बटेश्वर स्थान जो गुरु वशिष्ठ की निवास और उनकी तपो भूमि थी, जैन धर्म के 12वें तीर्थंकर वासुपूज्‍य का जन्‍मस्थान  और उनके तप और ज्ञान नगरी भी है । वासुपूज्‍य जी ने मंदार पर्वत पर निर्वाण प्राप्‍त किया । मंदार पर्वत हिन्दुओं की आस्था का भी केंद्र हैं, पर्वत के तलहटी में भगवान बिष्णु का मन्दिर पापहरनी सरोवर के बीचों – बीच अवस्थित है | भागलपुर महर्षि मेंहीं की तपोभूमि (कुप्पघाट) भी है, जिन्होंने संतमत की स्थापना की | यही वो भूमि भी है, जहाँ चंदू सौदागर और बिहला की कथा का जन्म हुआ | अब और क्या बताऊँ – हाँ, कुछ बदनुमा दाग भी हैं | यहीं भागलपुर का आंखफोडवा कांड हुआ, क्या नहीं समझे, अरे भाई गंगाजल फिल्म नहीं देखी वो सारी कहानी असली हैं और वो भागलपुर में घटी थी | भागलपुर का हिन्दू-मुस्लिम दंगा याद होगा शायद कुछ लोगों को | सिल्क सिटी मतलब भागलपुर चादर के बारे में सुना होगा, लिनेन खादी के बारे में जानते होगें | अरे, अरे मैं तो भागलपुर की कतरनी चावल और चुडा के साथ यहाँ के सफ़ेद मालदह आम और जरदालू की अति मोहक खुसबू और स्वाद तो भूल ही गया| ये सब मिलकर बनाते हैं भागलपुर |



विक्रमशिला महाविहार भग्नावशेष (स्तूप)


वैसे तो विक्रमशिला महाविहार एक बार 2011  में जा चुका हूँ, जिज्ञासा फिर से बलवती हो रही थी | इस बार  अपनी बसंती मतलब बाइक से यहाँ घूम आने का निर्णय ले लिया | पर ऑफिस में कई लोग ऐसा करने से मना कर रहे थे, कारण था वर्षों से राजमार्ग संख्या 33 (NH 33)  की भागलपुर से कहलगांव तक खस्ता हालत | लोगों ने बताया हालत पहले से बेहतर है, बेहतर से मतलब आप वो मत समझ लीजिएगा कि हेमा मालिनी के गाल वाला | बेहतर से मतलब पाँच-पाँच फीट के गड्डे नहीं हैं और सड़क ढूँढना नही पड़ेगा | वरना एक महीने पहले खेत कहाँ और सड़क कहाँ पता ही नहीं चल रहा था | पर एक अच्छी बात यह भी थी कि राजमार्ग संख्या 33 (NH 33) को नौगछिया से जोड़ने वाला विक्रमशिला सेतु मरम्मत कार्य के लिए लगभग 25-30 दिनों तक बन्द कर दिया गया था, जिसकी वजह से वाहनों का आवागमन नगण्य ही था, जिसकी वजह से हमें परेशानी उतनी नहीं होने वाली थी | ऑफिस में एक नये-नये आए सहकर्मी संजय घोष जो बंगाल के रहने वाले हैं, भी साथ चलने को तैयार हो गए तो बस इरादा पक्का हो गया |

 
सुबह उठकर तैयार हो निकलने को ही था, तो श्रीमतीजी गरमा-गरम पराठे और आलू की भुजिया (आलू की सब्जी) प्लेट में लेकर सामने खड़ी हो गई | मेरे घर की परम्परा रही, कहीं भी बाहर निकलना हो माँ अपने सामने खिलाएं बिना निकलने नहीं देती थी | वही परम्परा अब अर्धांगिनी भी निभा रही है | बिना देर किये झटपट प्लेट साफ किया और बसंती को लेकर 6:15 निकल पड़ा | तय की गई जगह, उल्टा पुल के पास इन्तजार करते–करते 6:45 बज चुके थे और संजय घोष का कहीं पता नहीं | तब तक मैं वहाँ केले बेचने और खरीदने वालों का मजमा देख दंग था, आजतक मुझे पता ही नहीं था कि केले की मंडी सड़क पर ही लगती है सुबह-सुबह | एक-दो फोटो ली और फिर बंगाली मोशाय को कोसने लगा | फोन भी बन्द, करें तो क्या करें | मैं 7 बजे अकेला ही निकल पड़ा, थोड़ी ही दुर गया था कि संजय घोष का फोन आया –

दादा रूम पार्टनर ने फिल्म देखकर रात में बैटरी डेड कर दी, सुबह अलार्म बजा ही नहीं| मुझे 10 मिनट दीजिए, मैं हाजिर होता हूँ |

 

उल्टा पुल के नीचे लगा केले का महाबाजार 

 

खैर, फिर वापस आया और बंगाली मोशाय को उल्टा पुल से नीचे से लेकर 7:15 बजे फिर से बसंती हवा से बातें करने लगी | बातचीत से पता चला कि बंगाली मोशाय को ज्वार चढ़ा है, मैंने मना किया मत जाओ पर बंगाली प्राणी बड़े घुमक्कड होते हैं | मेरा तो मानना है कि उत्तर भारत में बंगाली सबसे ज्यादा घूमने–फिरने होते हैं | बिहार के कुछ लोगों को ही घुमक्कडी के कीड़े काटते हैं |
रास्ते में घोघा गावं के आसपास कहीं, गंगा की छोटी सी धार 
रास्ते तो बस नानी की याद दिला रहे थे, इतनी बुरी हालत की बातें करने में ही मुहँ लक्मे पाउडर से पुत जाएं | पर हम इसके बारे में ज्यादा बात नहीं करेंगे | हाँ, रास्ते में कुछ सुन्दर नज़ारे भी मिले, एक मन्दिर भी दिख गया बहुत सुन्दर दिख रहा था तो हम वहाँ भी अपना सर झुका आये | कई लोग मुझे कहते हैं आप तो अपने को नास्तिक कहते हैं, पूजा-पाठ से कोई नाता- रिश्ता रहता नहीं फिर मन्दिर भी नहीं जाना चाहिए |  तो भाई बात ये है कि मन्दिर में सर झुका अपने अहंकार, गर्व, अभिमान, काम, मोह, लालच को समिर्पित करता हूँ, मुझे पुष्प, धूप-बत्ती, बेलपत्र नहीं चाहिए | ऐसा नहीं कि मैं नास्तिक हूँ, बस आस्तिकता की परिभाषा अलग है- कर्मकाण्ड, पाखंड पसन्द नहीं | अब ये किसी को बुरा लगे या भला, अपने राम को कोई मतलब नहीं |
माता शीतला जगदम्बा मन्दिर का दरबार 
माता शीतला जगदम्बा मन्दिर रास्ते में 
तो हम थे माता शीतला जगदम्बा मन्दिर में माता के शरण में, आज महालय है तो माता का पूजन भी चल रहा था | हमने कुछ पल रूककर सर झुकाया और इधर-उधर देख निकल पड़े अपने अगले पड़ाव की ओर | सबसे अच्छी बात ये हुई की मातारानी के दरबार से आगे बढ़ने पर सड़क ने हमें परेशान नहीं किया और हम पहुँच गए बटेश्वर स्थान | बटेश्वर स्थान और विक्रमशिला महाविहार एक दूसरे से लगभग तीन किलोमीटर की दुरी पर हैं | हमने वहाँ पहुँच बसंती को सही जगह देख खड़ा किया और चल पड़े गंगा मैया की गोद में डुबकी लगाने | 

 

बटेश्वर स्थान मुख्य द्वार 

 

बटेश्वर स्थान गंगा घाट 

    

बटेश्वर स्थान प्रभु राम के गुरु वशिष्ठ मुनि की कर्मस्थली रही है। वशिष्ठ मुनि द्वारा ही बाबा बटेश्वर मंदिर के शिवलिंग की स्थापना पुराणों में वर्णित है, जो एक छोटी सी पहाड़ी पर बिल्कुल ही गंगा के तट पर ही है । मन्दिर के पास ही एक गुफा भी है, ऐसी मान्यता है कि यह गुरु वशिष्ठ मुनि की गुफा है | वैसे जानकारी के लिए बता दूँ भारत में तीन बटेश्वर स्थान है। एक आगरा के पास यमुना नदी के किनारे, दूसरा मुरैना के पहाडिय़ों में तथा तीसरा कहलगांव में गंगा के तट पर छोटी सी पहाड़ी पर । बटेश्वर स्थान में भी विवाद है कि असल में इन तीनों में कौन सा गुरु वशिष्ठ मुनि द्वारा स्थापित बाबा बटेश्वर मन्दिर है । तीनों अपना – अपना दावा पेश करते हैं, ख़ैर हमें इससे क्या । एक घुमक्कड़ को तो घूमने – देखने और आंनद लेने से मतलब है, हमें कौन सा गुरु वशिष्ठ मुनि से मिलना है । वैसे मैंने यहाँ के इतिहास को खंगालने के लिए विशेष मेहनत भी नहीं की, क्योंकि हमारा सारा ध्यान विक्रमशिला महाविहार पर केंद्रित था |
बटेश्वर मन्दिर मुख्य मन्दिर  
बसंती खड़ी कर मुश्किल से दस कदम ही चला होऊंगा कि घाट पहुँच गया | साफ-सुथरी जगह ढूंढते रह गए पर हर जगह वही हाल, फिर हार कर एक जगह डेरा डाला और दोनों ने एक – एक कर डुबकी लगाई | ये मेरी गंगा में डुबकी लगाने के चंद गिने चुने डुबकीयों में शामिल हो गया | मजा तो बहुत आया गंगा की पावन जल में अपने को निर्मल कर, पर बाहर आकर पता चला कि मेरी रुद्राक्ष की माला गंगा मैया ने बलिदान ले ली | चलो कुछ बुरे कर्म कम हुए, गंगा मैया ने प्रतीक रूप में मेरी रुद्राक्ष की माला ले ली | झटपट कपडे डाल हम चंद क़दमों पर मौजूद बटेश्वर मंदिर पहुच गए | हमारे सहयात्री मित्र ने पूजा करने की इक्छा जताई तो उन्हें फूल-धूप-बत्ती की एक डलिया दिला दी, पर महोदय जिद करने लगे कि आपको भी लेना होगा | मैंने उनको लाख समझाया भाई मैं बस मत्था टेक लूँगा, आपकी फूल-पत्ती से ही चढ़ा लूँगा पर वो मानने को तैयार ही नहीं हुए और अंततः उन्होंने एक और डलिया ले ली |

 

पूजा की एक और वजह, छोटा बच्चा पूजन सामग्री बेचते हुए | हमने उसे अधिक पैसे देकर सामग्री खरीदी |

 

संजय घोष, इस यात्रा के सहयात्री (अमार-तोमर डलिया के साथ)
गंगा घाट का वृहंगम और अलौकिक नजारा 
वृहंगम नजारा ऊपर मन्दिर से 
बटेश्वर मंदिर के दरवाजे पर एक और शिवलिंग 
हम छोटी सी पहाड़ी पर मौजूद बटेश्वर मंदिर पहुँच वहाँ से गंगा के वृहंगम और अलौकिक रूप और नजारों को निहारते रहे, दिल को काफी सुकून मिल रहा था | फिर हमने मान्यता अनुसार, गुरु वशिष्ठ मुनि द्वारा स्थापित बाबा बटेश्वर के दर्शन किये, जबरदस्ती के पकडाए फूल-पत्ती, प्रसाद–अगरबत्ती को जैसे तैसे निपटा रहा था कि बाबू मोशाय ने फिर टोका –  

कुछ तो बचा के रखो दादा, और भी भगवान हैं उनको भी चढाना है | 

अब ये दादा मुझ से वो सब करवा रहे थे जिससे हम भागते रहे आज तक | अगरबत्ती जलवाया, वहाँ मौजूद सबके दरबार में अंत तक बचे फुल पते को चाढवाया, अगर कहीं भी फाकी मारता तो-  

अरे दादा इधर भी 

करके आखिर पूजा-पाठ करवा लिया | मुझे मालूम था भोले सब देख रहे हैं, सारा पुण्य ई बंगाली दादा को ही देने वाले हैं | मेरा ताबड़तोड़ मोबाईल फोटोग्राफी साथ-साथ चल रहा था |
 
बटेश्वर महादेव
पूजा पाठ के बाद अब बंगाली दादा को भुख लगी थी, लगना भी था 10:30 बजने वाले थे | मैंने तो गरमा-गरम पराठे उडाएं थे सुबह-सुबह वो अभी तक साथ निभा रहे थे | नीचे आकर एक-एक समोसे खाकर आगे बढ़ने को था कि बंगाली मोशाय को जलेबी बनती नजर आ गई | हमने दही–जलेबी का भोग लगाया और आगे बढ़े |

 

विक्रमशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष


 

विक्रमशिला महाविहार शुक्रवार को बन्द

 

11 बजे हम महाविहार के बाहर खड़े थे | मंजिल पर पहुँचने की खुशी बंगाली मोशाय के चेहरे पर साफ दिख रहा था | यहाँ चारों ओर सन्नाटा फैला था, एक्के-दुक्के लोग नजर आ रहे थे और वो भी शायद वहाँ काम करने वाले मजदूर और कर्मचारी ही थे | हमने प्रवेश टिकट लिया, जो 25 रूपये का था और अन्दर प्रवेश कर सीधे चल पड़े भग्नावशेष की ओर, यहाँ एक सुन्दर और सुसज्जित संग्रहालय भी है जिसे हम वापसी में देखेंगे |  
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष 
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष 
 
महाविहार के भग्नावशेष पहुँच बंगाली मोशाय तो जैसे आश्चर्यचकित थे, मैं पहले भी आ चुका था शायद इसलिए मेरी प्रतिक्रिया वैसी नहीं थी | दुर-दुर तक फैले अवशेष, उसके चारों ओर सुन्दर और करीने से सजे-कटे हरे घास के मैंदान इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे | कितने साफ-सुथरी जगह देख किसी को भी अनायास विश्वास हो ही नहीं सकता कि ये जगह बिहार में है | तारीफ करनी पड़ेगी यहाँ की मेनेजमेंट की, जवाब नहीं | सैकड़ों एकड में फैला क्षेत्र, पर गंदगी, धुल-मिटटी का नामोनिशान तक नहीं | जगह इतनी साफ-सुथरी की बंगाली बाबु तो एक-दो बार तो कहीं भी लेट गए, जब में फोटो और वीडियो लेने में व्यस्त था | जो मुझे उनके तबियत ठीक न होने का आभास बार-बार दे जाती पर वो मनाने को तैयार भी नहीं थे | हमने वहाँ के एक-एक अवशेषों को घूम-घूम कर देखा, अपने गौरवशाली इतिहास पर गर्व किया और सैकड़ों फोटो लिए, एक विडियों भी बनाया जिसे यायावर एक ट्रेवलर के यूट्यूब चैनल पर देखा जा सकता है |  
 

विक्रमशिलामहाविहार का इतिहास

विक्रमशिला विश्वविद्यालय का मुख्य स्तूप 

 

यह ऐतिहासिक विक्रमशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं | इस विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के राजा धर्मपाल द्वारा 775 से 800 ईश्वी के बीच मानी जाती है | तिब्‍बती स्त्रोतों के अनुसार यहाँ “विक्रम” नामक एक यक्ष को पराजित किया गया था इसलिए इसे विक्रमशिला कहा जाता है। ऐसा समझा जाता है कि नालन्‍दा विश्‍वविद्यालय की कान्ति मद्धिम पड़ जाने पर एक विकल्‍प के रूप में विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय की स्‍थापना की गई थी। इस विश्वविद्यालय ने अपनी स्थापना के तुरन्त बाद ही अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त कर लिया था। यह प्रायः चार सौ वर्षों तक नालन्दा विश्वविद्यालय का समकालीन था। इस महान बौद्ध शिक्षा केंद्र का विनाश कैसे हुआ इस पर अब भी पर्दा पड़ा है । हालांकि पुरातत्त्व विभाग ने कई बार इस स्थल खुदाई की, लेकिन किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके । बहरहाल,  भग्नावशेष से यही प्रतीत होता है कि शिक्षा का यह महान केंद्र किसी अग्निकांड का ग्रास बना । 


विक्रमशिला महाविहार के बारे में पुख्ता जानकारी का नितांत आभाव है, इस महाविहार से जुड़े अधिकांश साक्ष्य तिब्बती ग्रंथों में ही उपलब्ध हैं। यहाँ के विद्वान लंका, चीन, तिब्बत, नेपाल आदि स्थानों पर नियमित जाया करते थे | तिब्बत में बौद्ध भिक्षुओं को संगठित करने का श्रेय दीपांकर श्रीज्ञान को जाता है । चीनी यात्री इत्सिंग के विवरण में भी नालंदा के अलावा विक्रमशिला विश्वविद्यालय का भी जिक्र है। पूर्व मध्यकालीन भारत में इस विश्वविद्यालय का महत्त्वपूर्ण स्थान था ।
 
जैसी कि मान्यता है, करीब चार सदियों बुलंदियो की कई उचाई छूने के बाद तेरहवीं सदी की शुरुआत में मुस्लिम आताताई इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी, जिसे बख्तियार खिलजी के नाम से भी जाना जाता है, कुतुबुद्दीन एबक का एक सैन्य सिपहसालार था, ने आक्रमण कर ना सिर्फ इस महाविहार को पूरी तरह नष्ट किया बल्कि उसने इसके पहले 1225 ई0 से 1235 ई0 के बीच में नालंदा विश्वविद्यालय को भी नष्ट किया | इन महाविहारों को नष्ट करने के दौरान उसने यहां उपस्थित हजारों बौद्ध भिक्षुओं की भी निर्ममता से हत्या कर दी और महाविहारों को बुरी तरह से तोडा-फोड़ा | यहाँ के पुस्तकालयों में हजारों की संख्या में पांडुलिपियां रखी थी जिसे इस आताताई ने आग लगा दी |

ज्‍येष्‍ठ धर्म स्‍वामी लामा ने (1153-1216 ई0) तथा कश्‍मीरी विद्वान शाक्‍य श्रीभद्र ने (1145-1225 ई0) ने विक्रमशिला को प्रसिद्ध विद्या केन्‍द्र के रूप में देखा था। लेकिन पुन: धर्म स्‍वामी लामा जब 1235 ई0 में नालन्‍दा आये तब उन्‍होंने विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय को नहीं पाया। इससे निष्‍कर्ष निकलता है कि 1225 ई0 से 1235 ई0 के बीच मुस्लिम आक्रमणकारियों ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को  नष्ट कर दिया था। इस सन्दर्भ में ‘तबकाते नासिरी’ से भी जानकारी मिलती है। लामा तारानाथ ने लिखा है कि तुरूष्क आक्रमणकारियों ने इस महाविहार को सुनियोजित तरीके से नष्ट-भ्रष्ट किया। संपूर्ण महाविहार में आग लगा दी गई। मूर्तियों को भी टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़ दिया गया तथा यहाँ के विश्वविख्यात पुस्तकालयों को भी जला दिया गया। तारानाथ के अनुसार तुरूष्क आक्रमणकारियों ने इस महाविहार का विध्वंस कर उसके समीप ही महाविहार की ईटों और पत्थरों से एक किले का निर्माण किया और उस किले में वे कुछ समय तक रुके रहे।

 

विक्रमशिला विश्वविद्यालय मुख्य स्तूप  के भग्नावशेष

 

विक्रमशिला के बारे में सबसे पहले खोजबीन चिर यायावर, महापंडित, महान साहित्यकार राहुल सांस्कृत्यायन ने शुरू की और इसे भागलपुर से पश्चिम की ओर सुल्तानगंज के निकट होने का अनुमान लगाया । उसका मुख्य कारण था कि अंग्रेजों के जमाने में सुल्तानगंज के निकट एक गांव में बुद्ध की प्रतिमा का भूगर्भ से मिलना । किन्‍तु अंग्रेजों ने विक्रमशिला के बारे में पता लगाने का प्रयास नहीं किया और यह भूगर्भ में ही लंबे समय तक छुपा रहा

सौ एकड़ से ज्यादा भू-भाग में स्थित इस विश्वविद्यालय की खुदाई की शुरुआत साठ के दशक में पटना विश्वविद्यालय द्वारा की गई थी | अब तक हुए उत्खनन द्वारा प्राप्त भग्नावशेष को देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसे कितनी बर्बरतापूर्ण ढंग से ध्वस्त किया गया । मुख्य स्तूप तथा इसके मेहराबदार कमरे और मुख्य-स्थल के मंदिरों की  खुदाई का श्रेय डॉ. बी. एस. वर्मा को जाता है। डॉ. वर्मा ने यहाँ 1972 से 1982  तक के दस साल तक विश्वविद्यालय स्थल में छुपे पुरातात्विक वस्तुओं की खुदाई करवाई ।

 

विक्रमशिला विश्वविद्यालय मुख्य स्तूप  के भग्नावशेष

 

 
विक्रमशिला विश्वविद्यालय में अध्यात्म, दर्शन, तंत्रविद्या, व्याकरण, तत्त्व-ज्ञान, तर्कशास्त्र आदि की पढ़ाई होती थी | इस विश्वविद्यालय के प्रबंधन द्वारा ही बिहार के विश्व प्रसिद्ध नालन्दाविश्वविद्यालय को भी द्वितीय स्थान पर पीछे कर दिया था और नालन्दा विश्वविद्यालय के काम-काज को भी यहीं से नियंत्रित किया जाने लगा | तिब्बती-इतिहासकार लामा तारानाथ की प्रसिद्ध पुस्तक बौद्धधर्म का इतिहासके अनुसार १०वीं शताब्दी आते आते विक्रमशिला नालन्दा विश्वविद्यालय से भी बड़ा शिक्षा केन्द्र बन गया था। दुनिया के अन्य देशों से भी छात्र दाखिला पाने के लिए लालायित रहते थे | विक्रमशिला बिश्वविद्यालय से अनेक विद्वान तिब्बत गए तथा वहाँ उन्होंने कई ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया। इन विद्वानों में सबसे अधिक प्रसिद्ध दीपंकर श्रीज्ञान थे जिन्हें उपाध्याय अतीश के नाम से भी जाना जाता था । विक्रमशिला का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में रामपाल के समय 160 शिक्षक और 10,000 विद्यार्थी थे । विश्वविद्यालय के कुलपति 6 भिक्षुओं के एक मण्डल की सहायता से प्रबंध तथा व्यवस्था करते थे। कुलपति के अधीन 4 विद्वान द्वार-पण्डितों की एक परिषद प्रवेश लेने हेतु आये विद्यार्थियों की परीक्षा लेती थी। लामा तारानाथ की पुस्तक के अनुसार इस विश्वविद्यालय में छह प्रवेश द्वार थे, जो विषयों के प्रकांड विद्वान आचार्यों द्वारा रक्षित थे। वे आचार्य द्वार-पंडित कहे जाते थे। इस महाविहार में प्रवेश पाने के लिए विद्यार्थी को पहले प्रत्येक द्वार-पंडित से शास्त्रार्थ करना पड़ता था और जो इसमें उत्तीर्ण होता था वही इस महाविहार में प्रवेश पाने का अधिकारी होता था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार नालन्दा विश्‍वविद्यालय में एक द्वार का पता चला है जबकि विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय में छह द्वार थे । द्वारों की संख्या छह होने का तात्पर्य है कि यहाँ पर छह विषयों की पढ़ाई होती थी। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ये छह द्वार विश्‍वविद्यालय के छह विहारों को दर्शाते हैं । नालंदा विश्वविद्यालय की तरह यहाँ की भी प्रवेश परीक्षा बड़ी कठिन थी । दस प्रवेशार्थियों में दो या तीन को ही प्रवेश मिल पाता था।

विद्यार्थियों को भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा आदि की व्यवस्था नि:शुल्क दी जाती थी। विश्वविद्यालय का खर्च पाल-राजाओं द्वारा दिए गए जागीरों से होता था। इस महाविहार में दो तरह के विद्यार्थी होते थे। पहले वे विद्यार्थी जो शिक्षा प्राप्त करके बौद्ध-धर्म के प्रचार में ही अपना समस्त जीवन गुज़ारते थे। दूसरे वे विद्यार्थी, जिनका उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना और ग्रहस्थ जीवन गुज़ारना था। ऐसे विद्यार्थियों को महाविहार के आर्थिक संकट की स्थिति में या अपने निर्वाह के लिए कुछ धन की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी। ऐसे धन का प्रबन्ध वे भिक्षाटन द्वारा या उच्चवर्ग के विद्यार्थी अपने घर से इसकी पूर्ति करते थे। शिक्षकों और विद्वानों को अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए शास्त्रार्थ के आयोजन में भाग लेना पड़ता था। इस प्रकार के शास्त्रार्थ का समय पहले से निश्चित रहता था, जिसमें शिक्षक, विद्यार्थीगण तथा समस्त विद्वान भाग लेते थे और अपने ज्ञान की वृद्धि करते थे। ऐसी सभा की अध्यक्षता राजा स्वयं करता था।


उच्चकोटि की शिक्षा प्राप्त करके विक्रमशिला के विद्यार्थी ‘पंडित’ और ‘महापंडित’ की उपाधि धारण करते थे। यह डिग्री या उपाधि सत्‍तारूढ़ राजा द्वारा विद्यार्थियों को दी जाती थी। ये उपाधियाँ विक्रमशिला-महाविहार की उच्चतम डिग्री थी। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार श्रेष्‍ठ विद्वानों के नाम विश्‍वविद्यालय के द्वारों पर अंकित किये जाते थे।
 
इस विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली भिक्षु दीपंकर ने दो सौ ग्रंथो की रचना की। जिस समय चीनी यात्री ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहा था, उस समय विद्यार्थियों की संख्या करीब दस हजार और शिक्षकों की संख्या डेढ़ हजार थी। ऐसा कहा जाता है कि यहां के पुस्तकालय में हजारों की संख्या में पुस्तकें और संस्मरण उपलब्ध थे। उल्लेखनीय है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया तो उसने लगभग छह वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसके ग्रंथ सी-यू-की से तत्कालीन भारतीय समाज व संस्कृति के बारे में भरपूर जानकारी मिलती है। ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षक परिवार का हिस्सा भी था। कहा जाता है कि वह अपने साथ भारत से बुद्ध के कोई एक सौ पचास अवशेषों, सोने, चांदी व चंदन की लकड़ी से बनी बुद्ध की मूर्तियां और करीब साढ़े छह सौ पुस्तकों की पांडुलिपियां ले गया था। यह भगवान बुद्ध में उसकी आस्था का प्रमाण है। महान विद्वान शीलभद्र नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उन्होंने अपने ज्ञानपुंज से नालंदा विश्वविद्यालय को जगत-प्रसिद्ध किया।
 
ह्वेनसांग ने अपने विवरण में अपने समय के महान विद्वान शिक्षकों- धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणपति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, आर्यदेव, दिगनाग और ज्ञानचंद्र आदि- का उल्लेख किया है। ये शिक्षक अपने विषयों के साथ-साथ अन्य विषयों में भी पारंगत, निपुण और ज्ञानवान थे। पाल शासक गोपाल द्वितीय के समय में यहाँ से प्राप्त की गई ‘प्रज्ञापारमिता’ की पाँडुलिपि अभी भी ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित है।
 

विक्रमशिलाविश्वविद्यालय की वर्तमान स्थिति

 
उत्खनन में एक ग्रंथाकार का अवशेष भी मिला है जिसे देखने से प्रतीत होता है कि यह ग्रंथागार कभी काफी समृद्ध रहा होगा। भोजपत्र एवं तालपत्र ग्रंथों को नष्ट होने से बचाने के लिए ग्रंथागार में शीतोष्झा व्यवस्था थी। ग्रंथागार की दो दीवारों के बीच पानी बहा करता था जो तापमान को हमेशा सामान्य बनाए रखता था। इन उपायों को देखने से यही प्रतीत होता है कि इस भवन का निर्माण पुस्तकालय के लिए ही किया गया होगा। इसमें बौद्ध पांडुलिपियों का अच्छा संग्रह था।

 

ग्रंथागार (पुस्तकालय) की दो दीवारों के बीच पानी बहा करता था 



खुदाई स्थल में नीचे उतरते जो अवशेष हैं वो लगभग 60 फीट लंबे–चौड़े एक चबूतरे पर स्थित इस खंडहर की दीवारों और पक्की ईंटों के पाए क्षतिग्रस्त हैं। इस खुदाई से तिब्बती विद्वानों द्वारा वर्णित केन्द्रीय चैत्य के सत्यापित हो जाने से महाविहार के प्रायः सभी भवनों का प्रकाश में आना निश्चित हो गया है। यहाँ 50 फीट ऊँचे और 75फीट चौड़े भवन के रूप में एक प्रधान चैत्य था। भूमिस्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त हुई है। पूर्वी और पश्चिमी भवन में पद्यासन (पदमासन ) पर बैठे अवलोकितेश्वर की कांस्य-प्रतिमा प्राप्त हुई है। यहाँ अवस्थित स्तूप को देखने से ऐसा मालूम होता है कि कक्षाओं में प्रवेश के लिए यही मुख्य मंडप है। इसकी दीवारों मे चारों ओर टेराकोटा ईंटें लगी हैं जिनकी दशा बहुत खराब है।

 

मुख्य स्तूप के चबूतरे 
मुख्य स्तूप की दीवारों मे चारों ओर टेराकोटा लगी ईंटें
मुख्य स्तूप की दीवारों मे चारों ओर टेराकोटा लगी ईंटें
मुख्य स्तूप की दीवारें 

 

स्तूप के चारों ओर टेराकोटा की मूर्तियाँ लगी हैं। इन मूर्तियों में बुद्ध धर्म और सनातन धर्म से सम्बन्धित चित्र बने हैं। खुदाई के दौरान मठ पूर्णरूपेण चतुष्कोणीय है। यह 330 वर्गमीटर में फैला है। इसमें 28 कमरे हैं। इसके अलावा 12 भूगर्भ कोष्ठ बने हैं। इसका प्रयोग चिंतन-कार्य के लिए किया जाता था। केन्द्रीय चैत्य मीटर ऊँचा है। इसके केन्द्र के चारों ओर विपरीत दिशा के अराधना गृह में दो प्रदक्षिणा-पथों का निर्माण किया गया है। सभी प्रदक्षिणा पथों के ताखों में मिट्टी के पकाए हुए अनेक देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों, जानवर और अनेक सांकेतिक वस्तुओं का चित्रण पाया गया है। इसके अलावा खुदाई में यहाँ तंत्र-साधना के गुफा भी प्रकाश में आए हैं और वहाँ महाविहार-अंकित एक मुद्रा भी मिली है।

 




विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय में शिक्षा का माध्‍यम संस्‍कृत भाषा थी। पाल शासकों के काल में बौद्ध धर्म के तहत तंत्रज्ञान (वज्रयान) का विकास हुआ। विक्रमशिला सबसे बड़ा तांत्रिक केन्द्र था। महाविहार में पढ़ाई जाने वाली तंत्र में सिद्धि के लिए छात्र वर्तमान में उत्खनन-स्थल से दो किलोमीटर दूर, शांत गंगा के किनारे बटेश्वर-स्थान जाते थे। बटेश्वर-स्थान आज भी सिद्ध-पीठ के नाम से विख्यात है।
मुख्य स्तूप के सामने एकांत में 

विक्रमशिलाविश्वविद्यालय के भग्नावशेष संग्रहालय

संग्रहालय

 

विक्रमशिला की उत्खनन के दौरान कई दुर्लभ चीजें निकली, कुछ यहाँ हैं और कुछ यहाँ से कई अन्य जगहों पर भेज दिया गया | संग्रहालय दो मंजिला भवन में था और वो भी अति सुसज्जित और व्यवस्थित | यहाँ मोबाईल का उपयोग निषिद्ध था, इस वजह से कोई फोटो न ले सका | संग्रहालय घूमने के दौरान सिर्फ दो लोग आये और हम से पहले चले गए| और कोई था नहीं इस वजह से दो-दो सुरक्षा गार्ड हम पर निगरानी रखे थे, जबकि पहले ही वहाँ हाई-सिक्योरिटी डिवाइस भी लगी थी | कई दुर्लभ चीजों को देखने का मौका मिला पर सबसे ज्यादा खून उस वक्त खौल उठा जब मैंने भाले, फरसे और तलवार की कुछ मुट्ठे देखे | मिटटी में पड़े-पड़े इनकी हालत खराव हो चुकी थी, पर ये वही हथियार थे जिनसे यहाँ के सभी गुरुओं और शिष्यों का बेदर्दी से कत्लेआम किया गया | एक शिलालेख पर सोमपुर महाविहार का उल्लेख था, उसकी एक फोटो संग्रहालय में देखने को मिली जो सीढियों के पास लगी थी पर सुरक्षा में लगे पहलवानों ने इसकी भी फोटो लेने नहीं दिया | यह भी बिल्कुल प्रतिकृति थी विक्रमशिला स्तूप की | जैसा शिलालेख पर जानकारी मिली की उसका भी निर्माण धर्मपाल द्वारा ही किया गया था | अब यह जगह शायद बंगलादेश में है |
 
वापस चलने के पहले हमने मैंगो फ्रूटी की एक बड़ी बोतल ली पर भूख लगी थी इसलिए बैग में रख लिया, खाने के बाद आम का स्वाद लिया जायेगा | आते वक्त हमें कहलगाँव में एक होटल नजर आ गया तो हमने वहाँ रुकर चावल-दाल, तीन सब्जी और सलाद से सजी थाली का भोग लगाया और फिर 4 बजे तेज रफ़्तार से घर की ओर चल पड़े, क्योंकि हमें अँधेरा होने से पहले घर पहुँचाना था | वापस आते वक्त हमने सिर्फ दो ब्रेक लिए एक खाने के लिये और एक भागलपुर की सीमा में पहुचकर जूस पीने के लिये जो हमने महाविहार के बाहर ख़रीदा था | हम 5:40 बजे अपने घर पहुँच गये | 
 
 
 

पहुँचने का मार्ग-

 
सड़क मार्ग  पटना से 250 किलोमीटर व भागलपुर से 50 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है | यह राजमार्ग संख्या 33 (NH 33) से नौगछिया से विक्रमशिला सेतु द्वारा जुड़ा जुआ है |
 
रेल मार्ग यहाँ तक पहुँचने का मुख्य साधन रेल-मार्ग है, निकटवर्ती रेलवे स्टेशन कहलगाँव है| विक्रमशिला महाविहार भागलपुर से करीब 50 किलोमीटर की दुरी पर ही है| यहाँ तक जाने के लिए निजी गाड़ी या भागलपुर से गाड़ी लेकर पहुँचा जा सकता है, पर …. भागलपुर से कहलगाँव की सड़क ऐसी है कि केदारनाथ और गंगोत्री की यात्रा भी आसान लगेगी बजाय विक्रमशिला तक पहुँचने के। ठहरने के लिए भागलपुर शहर का सहारा लेना होगा। विक्रमशिला महाविहार के आसपास ठहरने और खान-पान की कोई व्यवस्था नहीं है| वैसे तो भागलपुर से कहलगांव का सफर लोकल ट्रेन से किया जा सकता है अगर आप ट्रेन में सवार हो पाएं| ट्रेन की संख्या अत्यंत ही गिनी-चुनी है इस वजह से ट्रेन भेड़-बकरियों की तरह भरे होते हैं| हम तो लोकल ट्रेन से जाने की हिम्मत ही नहीं कर सकते, कई एक्सप्रेस ट्रेनें भी चलती है पर समय का तालमेल ठीक नहीं होने के कारण ट्रेन उचित विकल्प नहीं है|  
 

एक दिवसीय यात्रा खर्च –

 

पेट्रोल – 200

खान – पान – 250

अन्य खर्च –    50

 
फिर मिलते हैं अगले यात्रा पर, तब तक स्वस्थ रहिए, मस्त रहिए और यायावरी करते रहिये |



इस यात्रा के दौरान लिये गए अन्य फोटो →


 

 



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12 thoughts on “विक्रमशिला विश्विद्यालय – Vikramshila University- The Forgotten University In Bhagalpur”

  1. वाह मन प्रसन्न हो गया खर्चपाणि जी, खर्चा आपने किया पानी हमने पी लिया। बहुत अच्छा और सारगर्भित लेख लिखा आपने अपने देश की धरोहर के बारे में। नालंदा तो गया हूं पर यहां नहीं जा सका कभी, अगली बार कोशिश करूंगा, पर एक छोटी सी जिंदगानी आदमी कहां कहां जाए।

  2. अभयानंद भाई, आभार आपका आपकी सुन्दर टिपण्णी के लिये | भाई जी, आपके जैसे घुमक्कड जितना यायावरी कर रहे हैं, उतना तो एक आम इंसान को अगले कई जन्म में भी नाप न पाये | मेरा मानना है यायावरी और घुमक्कडी के लाइलाज कीड़े कम ही लोगों को काटते हैं | जब तक जिन्दगी है बस – राही चलता जा |

  3. बहुत ही अच्छा जानकारी साझा की आपने। धन्यवाद आपको की आप बिहार के समृद्ध इतिहास से हमें अवगत करा रहे हैं।

  4. उमेश जी, बिहार हमेशा से अवतारों और गुरुओं का प्रदेश रहा है और विश्व गुरु था | वो तो हमने वर्तमान को बिगाड़ इसकी छवि खराब की | वैसे यह अवशेष सिर्फ बिहार के लिए, पुरे हिंदुस्तान के लिए गर्व के प्रतीक हैं | आज लोग अमेरिका को विकसित और ज्ञानी मानते हैं पर हमने वो सब सदियों और युगों पहले हासिल कर जब बाकी की दुनिया नंगी घूम रही थी | पर हमें अपनी रामायण और महाभारत दकियानुसी लगते हैं | बस नजरों का फर्क है भाई साहब |

  5. बहित ही बढ़िया लेख अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी के लिए आपका साधुवाद। कुछ शब्द गलत है उनकी और आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जैसे मारा-मरी की बजाय मारा-मारी, वशिष्ट की जगह वशिष्ठ, महिर्षि की जगह महर्षि, एतिहासिक की जगह ऐतिहासिक। इस धृष्टता के लिए क्षमा बस प्रयास ये है कि लेख की अशुद्धियां दूर हो।

  6. विकास जी, दिल से आभार आपका | शव्दों की कई अशुद्धियाँ रह गई आपने ध्यान आकर्षित करवाया दिल सी शुक्रिया | उम्मीद करूँगा भविष्य में भी आप ऐसे ही अपना बहुमूल्य सुझाव से अवगत कराते रहेंगे | आपने जितनी भी अशुद्धियों की ओर ध्यान आकर्षित कराया है उसमें तत्काल सुधार कर रहा हूँ |

  7. विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय में शिक्षा का माध्‍यम संस्‍कृत भाषा थी। पाल शासकों के काल में बौद्ध धर्म के तहत तंत्रज्ञान (वज्रयान) का विकास हुआ। विक्रमशिला सबसे बड़ा तांत्रिक केन्द्र था। महाविहार में पढ़ाई जाने वाली तंत्र में सिद्धि के लिए छात्र वर्तमान में उत्खनन-स्थल से दो किलोमीटर दूर, शांत गंगा के किनारे बटेश्वर-स्थान जाते थे। बटेश्वर-स्थान आज भी सिद्ध-पीठ के नाम से विख्यात है। बहुत खूब। . .. यहां जाने का मन था लेकिन समय की कमी से गया से ही वापस लौटना पड़ा

  8. क्या बात है!!! ऐसी जानकारी को पढ़ना ही यायावरी है, तो आप तो साक्षात वहां घूम चुके हैं।

    बहुत बढिया ।

  9. बहुत अच्छा और सारगर्भित लेख लिखा आपने अपने देश की धरोहर के बारे में।

    1. आभार मृतुन्जय जी,
      ब्लॉग तक आने और पढ़ने के लिए.
      नालंदा और विक्रमशिला उस ज़माने की हमारी विश्वविद्यालयों में हैं जब अमेरिका में सभ्यता नंगी घूम रही थी. हमने अपने महत्व को खुद ही गिराया और पिछलग्गू बन बैठे. हम आज भी विश्वगुरु होने की काबिलियत रखते हैं पर हमारे खुद के ओछे विचार और अपनी चीजों को महत्वहीन समझने की भावना ले डूब रही.

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